पहले थे जगदीश स्वामीनाथन। अद्वितीय चित्रकार-चिन्तक और व्यस्त होते हुए भी भारत भवन की कला दीर्घाओं को संयोजित करने दिल्ली से आये थे। स्वामीनाथन के पास रूपंकर कला-दीर्घाओं को संयोजित करने का बिल्कुल नया और गहरा विचार था जो भारत की विचार-परम्परा से लिया गया था। वे चाहते थे कि भारत भवन रूपंकर कला दीर्घाओं में आधुनिक शहरी कलाकृतियों के साथ ही आदिवासी और लोक कलाकृतियां भी प्रदर्शित हों। वे मानते थे कि आदिवासी कलाकारों के आज बनाये चित्र उतने ही समकालीन हैं जितने शहरों में रहते चित्रकारों के चित्र। यह आधुनिक विश्व में बिल्कुल नया विचार था। इसके पीछे स्वामीनाथन की समझ यह थी कि जो समाज टेक्नोलाॅजी में पिछड़ा होता है, वह जरूरी नहीं कि कलाओं में भी पीछे ही हो क्योंकि कलाओं में ‘विकास’ नहीं होता, न ही संवेदनाओं में। यह रूपंकर कला-दीर्घा का ही परिणाम है कि आज दुनिया के प्रसिद्ध लुब्र (पेरिस) संग्रहालय समेत अनेक कला संग्रहालयों में आदिवासी चित्रों को उतने ही सम्मान से स्थान दिया जाने लगा है जितना शहरी चित्रकारों के काम को। इसी कला-दीर्घा से आगे चलकर भोपाल में ही मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय का जन्म सम्भव हो पाया।
दूसरा विवेक-स्तम्भ हैं विख्यात कवि और संस्थान-निर्माता अशोक वाजपेयी। उन्होंने न सिर्फ़ भारत भवन को उसका वर्तमान स्वरूप दिया बल्कि जगदीश स्वामीनाथन, ब.व. कारन्त जैसे कल्पनाशील कलाकारों को भी आमंत्रित किया कि वे एक अपेक्षाकृत छोटे शहर में रहकर नये बन रहे सृजनशील संस्थान में अपनी कल्पना का निवेश करें। अशोक ने ही भारत भवन न्यास के गठन में केन्द्रीय भूमिका निभायी और राष्ट्रीय कविता पुस्तकालय ‘वागर्थ’ को स्थापित किया था। भारत भवन के विधान में यह स्वीकार किया गया था कि यह कला-संस्थान उन लेखक-कलाकारों का मंच बनेगा जो भले ही लोकप्रिय न हों पर अपनी कलाओं में गहन साधना की है फिर भले ही उनकी कीर्ति उतनी फैल नहीं सकी जितने के वे हकदार थे। इसी विधान के कारण यहा मल्लिकार्जुन मंसूर और ज़िया मोहिनुद्दीन डागर जैसे श्रेष्ठ पर अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय संगीतकारों को प्रतिष्ठा मिली।
तीसरा विवेक-स्तम्भ थे ब.व. कारन्त। कारन्त कन्नड़ भाषी होते हुए भी अद्वितीय हिन्दी रंगकर्म करते रहे थे। इसी कारण भवन में देश में पहली बार सारंगी मेला हो सका। उन्होंने मध्यप्रदेश के अभिनेता-अभिनेत्रियों की रंगमण्डली स्थापित कर उन्हें नये सिरे से शिक्षित किया और मालवी, बुन्देलखण्डी जैसी बोलियों में संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओं के महान नाटक मंचित किये। इन तीनों विवेकवानों के चारों ओर भारत भवन बुना गया था। वहां जब भी उस आधार-विवेक का ह्रास हो जाता है तो भवन के क्रियाकलाप भी नीचे गिरने लगते हैं। जब नये विवेकवान आते हैं, ये अपेक्षाकृत सुधार पर आ जाते हैं। शुरुआत के वर्षों में भारत भवन राजनैतिक हस्तक्षेप से बचा रहा, पर लगातार वैसा हो नहीं पाया। यह याद रखने की सीख है कि जब कोई भी विद्या-केन्द्र राजनैतिक हस्तक्षेप का शिकार होता है, उसका पतन अवश्यंभावी है। भोपाल अपने इन अनोखे केन्द्र को कितने दिनों तक ऊर्जस्वित रख सकेगा, यह यहां के जागरुक नागरिकों पर निर्भर है।